Sunday, August 20, 2017

वह लड़की

वह लड़की
"ऋचा श्रीवास्तव" 

रोज आती है 'वह' लड़की
गंदे बोरे को अपने कांधे पर उठाये
और चुनती है अपनी किस्मत सा
ख़ाली बोतल, डिब्बे और शीशियां
अपने ख़्वाबों से बिखरे
कुछ काग़ज़ के टुकड़ों को
और ठूँस देती है उसे
ज़िंदगी के बोरे में

ग़रीबी के पैबन्दों का, लिबास ओढ़े
कई पाबंदियों के साथ उतरती है
संघर्ष के गंदे नालों में
और बीनती है साहस की पन्नियां
और गीली लकड़ी सा
सुलगने लगती है अंदर ही अंदर
जब देखती है
अपनी चमकीली आंखों से
स्कूल से निकलते
यूनिफ़ार्म  डाले बच्चों को!

ऋचा श्रीवास्तव
20-08-2017
पटना। 

Friday, July 21, 2017

बेटियों जैसा कोई नहीं

बेटियों जैसा कोई नहीं               "ऋचा श्रीवास्तव "

पर्वत पर चढ़ कर, लोग मांगते हैं बेटा 
क्यों नहीं कोई मांगता हम बेटियों सा
क्यों हर घर का रहता है एक ही नारा 
बेटियों के बाद भी हो एक बेटा हमारा 

ईश्वर के दर पर हम दोनों हैं एक 
फिर क्यों बेटियां दी जाती हैं फेंक 
क्यों बेटियों का घर ही रोता है 
बेटों का लालच ख़त्म क्यों नहीं होता है 

मुंह मोड़ लेते हैं हमसे सब 
नहीं देते हैं हम, बेटा जब 
सुन ले वह ज़माना आज 
हम बेटियां नहीं किसी की मोहताज 

अगर बेटा होते बेटियों से अच्छे 
तो माँ-बाप बुढ़ापे में  न यूं रोते 
इसलिए तू लाख कर ले बेटा-बेटा 
हम बेटियों जैसा नहीं कोई होता 

"ऋचा श्रीवास्तव "
पटना 22/07/2017 

Saturday, April 1, 2017

"मैंने दहेज़ नहीं माँगा"

"मैंने दहेज़ नहीं माँगा"       "ऋचा श्रीवास्तव "


साहब मैं थाने नहीं जाऊँगा 
अपने घर से कहीं नहीं जाऊँगा 
माना, पत्नी से थोड़ा मनमुटाव था 
सोच अलग व विचारों में खिचांव था 
पर यक़ीन मानिये, मैंने दहेज़ नहीं माँगा  

मानता हूँ क़ानून पत्नी के पास है 
स्त्रियों का समाज में हो रहा विकास है 
चाहत मेरी थी बस, यही कि माँ-बाप 
का सम्मान हो, न कभी अपमान हो 
पर अब क्या फ़ायदा ?


जब टूट ही गया रिश्तों का धागा 
यक़ीन मानिये, मैंने दहेज़ नहीं माँगा  
परिवार संग रहना, उसे नहीं था पसंद 
कहती है - यहाँ नहीं है कोई आनंद 
ले चलो दूर किराये के आशियाने में 


छोड़ दो माँ-बाप को किसी तहख़ाने में 
नहीं छोड़ पाया, मैं बूढ़े माँ-को 
फ़िर शुरू हुआ, वाद-विवाद का जलजला 
खो गया मेरा, चैन और सुकून का सिलसिला
मुझसे लड़ कर, वह मायके जा पहुँची

दो दिन बाद मुझे धमकी आ पहुँची 
सबक सीखा दूंगी तुझे ?
दहेज़ क़ानून दिखा दूंगी तुझे ?
यक़ीन मानिये, मैंने दहेज़ नहीं माँगा 
जो कहा था, उसने आख़िरकार कर दिखाया। 

झगड़ा किसी और बात का था 
पर उसने दहेज़ का नाटक रचाया 
पुलिस थाने से, एक दिन फ़ोन आया 
दहेज़ लोभी, कह कर मुझे हड़काया 
सभी रिश्तेदारों के नाम थे रिपोर्ट में 

माता-पिता भाई-बहन-जीजा 
सभी घर से, पहुँच गए कोर्ट में 
टूटा सपना घर-संसार संजोने का 
मैंने तो, सारी ज़िम्मेदारी निभायी थी 
पर मुझे क्या पता, माता-पिता का मोह 
मुझ पर लगा देगा दहेज़ का तमगा  

ऋचा श्रीवास्तव 
01-04-2017 


पटना  

"कभी-कभी"

"कभी-कभी"                                             "निर्मल अगस्त्य"
----------------------कभी-कभी हम उतना नहीं जी पाते 
जितना,
कहीं किसी मोड़, किसी गली 
या किसी दरवाज़े से होकर 
गुज़रते हुए जी जाते हैं। 
चाँद में छिपी चवन्नी,
सूरज में दबी अठन्नी,
बादलों में तैरता बताशा,
एक टिकोले को टटोलती 
गुलेल की लचकती सी आशा !

भीड़ के आपा-धापी में 
मुस्कुराता एक चेहरा,
किसी के होने से पहले
अपनेपन का घेरा,
हर इन्सान बस एक ख़्वाब है 
जो किसी की नींद में 
उतर तो सकता है,
जी नहीं सकता!

तब भी यही होता है 
कि हम उतना
जग के नहीं जी पाते, 
जितना ख़्वाब में जी जाते हैं। 

पन्द्रह पैसे का पोस्टकार्ड, 
चार आने की अन्तर्देसी और 
एक रुपये के लिफ़ाफ़े में 
शब्द नहीं जाते थे कभी,
एहसासों से बुनी हुई 
ज़िन्दगी जाती थी।
 जिसका एक सिरा 
चिठ्ठी भेजने वाले के हाथ होता था 
और एक सिरा 
चिठ्ठी पाने वाले के हाथ।  


हम बोल के कहाँ उतना कह पाते हैं 
जितना लिख के कह पाते थे। 

बड़ी ख़ुशी होती है 
जब कोई 
बहुत देर तक घन्टी बजने के बाद 
फ़ोन उठाता है,


                                                  
और जम्हाई ले-ले कर 
देर तक बतियाता है।                                                   
जब दिल बड़ा हो                                                   
तो बिल कम लगने लगता है                                                    
और जब                                                
दूरियाँ बहुत छोटी हों                                                  
तो बैलेंस बड़ा लगने लगता है। 

कभी-कभी हम उतना नहीं समझ पाते 
जितना दिल चुपके से समझ जाता है। 
कभी-कभी हम शब्दों को 
उतना नहीं पढ़ पाते
जितना वे कहना चाहते हैं,
लेकिन हम उन्हें पढ़ के अक़्सर 
वहीं छोड़ आते हैं। 
और जो पढ़ना बाक़ी रह जाता है 
वही अलफ़ाज़
मन में बस जाते हैं।    

"निर्मल अगस्त्य"

Tuesday, March 21, 2017

स्त्री नाच रही है


"स्त्री नाच रही है........"         'ऋचा श्रीवास्तव '



स्त्री नाच रही है 
तब से अब तक
स्त्री नाच रही है 
कुम्हार के चाक की तरह, 
ताकि गढ़ सके सृष्टि।


स्त्री नाच रही है ताकि 
फल-फूल सके सभ्यता 
स्त्री नाच रही है
बस्तर के जंगलों से 
दिल्ली की पॉश कॉलोनियों तक। 


हाथ में टांगी लिए 
माथे पर खांची लिए 
कीचड़ में धान का विरवा रोपते हुए 
पीठ पर बच्चा बांधे 
पेट में बच्चा लिए / स्त्री नाच रही है। 


रसोई में, ड्राइंग रूम में 
बच्चों के स्टडी रूम में 
स्कूलों में, कॉलेजों में, कार्यालयों में  
बसों में, ट्रेनों में, हवाई जहाजों में 
हाथ में कम्प्यूटर लिए, वह नाच रही है। 

बन्दूक उठाये सड़कों पर 
सरहद पर, फाइटर प्लेनों में
स्त्री नाच रही है
जहाँ भी बरस रहा है, प्रेम  
स्त्री की प्रकृति है नाचना। 

वह नाचना चाहती है 
वह नाचना जानती है 
खिलते हैं फूल / छाते हैं बादल
बरसते हैं फुहारे / जब स्त्री नाचती है
स्त्री नाचती रहेगी आगे भी। 

सृष्टि का अन्त नहीं होगा 
जल प्रलय से, भूकंप से 
अणु या परमाणु बम के विस्फोट से 
सृष्टि का अन्त तब होगा 
जब स्त्री नाचना बंद कर देगी। 


ऋचा श्रीवास्तव 
21/03/2017 
पटना, बिहार    

Wednesday, January 11, 2017

"दादी की पोती"


झिलमिल करती एक किरण 
उतरी जो दादी के आँगन 
लिया समेत उसे आँचल में 
वार दिया उस पर तन-मन 

कहने लगी उसे फिर दादी 
क्यूँ री इतनी देर लगायी?
पोती बोली- देर कहाँ दादी 
तूने चाहा और मैं आयी 

आज कली एक नन्ही सी हूँ 
कल मैं खिल कर फूल बनूँगी 
सुरभित घर होगा सुगन्ध से 
पर तेरे अनुकूल बनूँगी 

दादी तुम बस इतना ही करना 
सद्गुण अपने मुझमें भरना 
चन्दा की शीतलता देना 
सूरज की कर्मठता भरना 

जब मैं हो जाऊंगी सयानी 
करोगी तुम वर का सन्धान 
मेरे मन की एक बात का 
दादी रखना तुम हमेशा ध्यान 

धीर-गम्भीर दादा सा वर हो 
और पाप सा- रसराज 
फुआ जैसा हंसमुख दिल हो
बनेगा जो मेरा सरताज 

पोती की बातें सुन कर 
दादी का अन्तर्मन भर आया 
आनेवाली दिवस की सोचकर 
एक मीठा सपना सा छाया 

हर साध तुम्हारी पूरी हो
सौ बार दुआयें देती हूँ 
तू सुख से जिए, फल-फूले 
मैं तेरी बलाएं लेती हूँ। 

ऋचा श्रीवास्तव 
11-01-2017 
पटना, बिहार।  

Thursday, October 20, 2016

"कन्यादान"

कन्यादान हुआ जब पूरा 
आया समय विदाई का
हँसी-ख़ुशी सब काम हुआ था
सारी रस्म अदायी का,

बेटी के उस कातर स्वर ने
बाबुल को झकझोर दिया
पूछ रही थी पापा तुमने
क्या सच में मुझको छोड़ दिया,

अपने आँगन की फुलवारी
मुझे सदा कहा करते थे तुम,
मेरे रोने को पल भर भी
बिलकुल सहा नहीं करते थे तुम 

क्या इस आँगन के कोने में
मेरा कुछ भी अब स्थान नहीं
क्या मेरे रोने को पापा
क्या तुमको बिल्कुल ध्यान नहीं

देखो अन्तिम बार देहरी
लोग मुझसे पुजवाते हैं
आकर के पापा क्यों इनको
आप नहीं धमकाते हैं,

नहीं रोकती माँ और दीदी
भैया से भी आस नहीं
ऐसी भी क्या निष्ठुरता है
कोई आता मेरे पास नहीं,

बेटी की बातों को सुनकर
पिता नहीं रह सका खड़ा
उमड़ पड़े आँखों में आंसू
बदहवास-सा दौड़ पड़ा,

कातर बछिया- सी वह बेटी
लिपट पिता से रोती थी,
जैसे यादों के अक्षर वह
अश्रु-बिंदु से धोती थी,

मान को लगा गोद से कोई
मानो सब-कुछ छीन चला
फूल सभी घर की फुलवारी से
कोई सारे बीन चला,

छोटा भाई भी कोने में बैठा
सुबह से ही सुबक रहा,
उसको कौन करेगा चुप
अब वह कोने में दुबक रहा,

बेटी के जाने पर घर ने
जाने क्या-क्या खोया है,
कभी न रोने वाला पिता भी
आज फूट-फूट कर रोया है।

ऋचा श्रीवास्तव।
20-10-2016, पटना।