"कभी-कभी" "निर्मल अगस्त्य"
----------------------कभी-कभी हम उतना नहीं जी पाते
----------------------कभी-कभी हम उतना नहीं जी पाते
कहीं किसी मोड़, किसी गली
या किसी दरवाज़े से होकर
गुज़रते हुए जी जाते हैं।
चाँद में छिपी चवन्नी,
सूरज में दबी अठन्नी,
बादलों में तैरता बताशा,
एक टिकोले को टटोलती
गुलेल की लचकती सी आशा !
मुस्कुराता एक चेहरा,
किसी के होने से पहले
अपनेपन का घेरा,
हर इन्सान बस एक ख़्वाब है
जो किसी की नींद में
उतर तो सकता है,
उतर तो सकता है,
जी नहीं सकता!
तब भी यही होता है
कि हम उतना
जग के नहीं जी पाते,
जितना ख़्वाब में जी जाते हैं।
चार आने की अन्तर्देसी और
एक रुपये के लिफ़ाफ़े में
शब्द नहीं जाते थे कभी,
एहसासों से बुनी हुई
ज़िन्दगी जाती थी।
जिसका एक सिरा
जिसका एक सिरा
चिठ्ठी भेजने वाले के हाथ होता था
और एक सिरा
चिठ्ठी पाने वाले के हाथ।
जितना लिख के कह पाते थे।
बड़ी ख़ुशी होती है
जब कोई
बहुत देर तक घन्टी बजने के बाद
फ़ोन उठाता है,
फ़ोन उठाता है,
और जम्हाई ले-ले कर
देर तक बतियाता है।
देर तक बतियाता है।
जब दिल बड़ा हो
तो बिल कम लगने लगता है
और जब
और जब
दूरियाँ बहुत छोटी हों
तो बैलेंस बड़ा लगने लगता है।
जितना दिल चुपके से समझ जाता है।
कभी-कभी हम शब्दों को
उतना नहीं पढ़ पाते
उतना नहीं पढ़ पाते
जितना वे कहना चाहते हैं,
लेकिन हम उन्हें पढ़ के अक़्सर
वहीं छोड़ आते हैं।
और जो पढ़ना बाक़ी रह जाता है
वही अलफ़ाज़
मन में बस जाते हैं।
"निर्मल अगस्त्य"
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