Saturday, April 1, 2017

"मैंने दहेज़ नहीं माँगा"

"मैंने दहेज़ नहीं माँगा"       "ऋचा श्रीवास्तव "


साहब मैं थाने नहीं जाऊँगा 
अपने घर से कहीं नहीं जाऊँगा 
माना, पत्नी से थोड़ा मनमुटाव था 
सोच अलग व विचारों में खिचांव था 
पर यक़ीन मानिये, मैंने दहेज़ नहीं माँगा  

मानता हूँ क़ानून पत्नी के पास है 
स्त्रियों का समाज में हो रहा विकास है 
चाहत मेरी थी बस, यही कि माँ-बाप 
का सम्मान हो, न कभी अपमान हो 
पर अब क्या फ़ायदा ?


जब टूट ही गया रिश्तों का धागा 
यक़ीन मानिये, मैंने दहेज़ नहीं माँगा  
परिवार संग रहना, उसे नहीं था पसंद 
कहती है - यहाँ नहीं है कोई आनंद 
ले चलो दूर किराये के आशियाने में 


छोड़ दो माँ-बाप को किसी तहख़ाने में 
नहीं छोड़ पाया, मैं बूढ़े माँ-को 
फ़िर शुरू हुआ, वाद-विवाद का जलजला 
खो गया मेरा, चैन और सुकून का सिलसिला
मुझसे लड़ कर, वह मायके जा पहुँची

दो दिन बाद मुझे धमकी आ पहुँची 
सबक सीखा दूंगी तुझे ?
दहेज़ क़ानून दिखा दूंगी तुझे ?
यक़ीन मानिये, मैंने दहेज़ नहीं माँगा 
जो कहा था, उसने आख़िरकार कर दिखाया। 

झगड़ा किसी और बात का था 
पर उसने दहेज़ का नाटक रचाया 
पुलिस थाने से, एक दिन फ़ोन आया 
दहेज़ लोभी, कह कर मुझे हड़काया 
सभी रिश्तेदारों के नाम थे रिपोर्ट में 

माता-पिता भाई-बहन-जीजा 
सभी घर से, पहुँच गए कोर्ट में 
टूटा सपना घर-संसार संजोने का 
मैंने तो, सारी ज़िम्मेदारी निभायी थी 
पर मुझे क्या पता, माता-पिता का मोह 
मुझ पर लगा देगा दहेज़ का तमगा  

ऋचा श्रीवास्तव 
01-04-2017 


पटना  

"कभी-कभी"

"कभी-कभी"                                             "निर्मल अगस्त्य"
----------------------कभी-कभी हम उतना नहीं जी पाते 
जितना,
कहीं किसी मोड़, किसी गली 
या किसी दरवाज़े से होकर 
गुज़रते हुए जी जाते हैं। 
चाँद में छिपी चवन्नी,
सूरज में दबी अठन्नी,
बादलों में तैरता बताशा,
एक टिकोले को टटोलती 
गुलेल की लचकती सी आशा !

भीड़ के आपा-धापी में 
मुस्कुराता एक चेहरा,
किसी के होने से पहले
अपनेपन का घेरा,
हर इन्सान बस एक ख़्वाब है 
जो किसी की नींद में 
उतर तो सकता है,
जी नहीं सकता!

तब भी यही होता है 
कि हम उतना
जग के नहीं जी पाते, 
जितना ख़्वाब में जी जाते हैं। 

पन्द्रह पैसे का पोस्टकार्ड, 
चार आने की अन्तर्देसी और 
एक रुपये के लिफ़ाफ़े में 
शब्द नहीं जाते थे कभी,
एहसासों से बुनी हुई 
ज़िन्दगी जाती थी।
 जिसका एक सिरा 
चिठ्ठी भेजने वाले के हाथ होता था 
और एक सिरा 
चिठ्ठी पाने वाले के हाथ।  


हम बोल के कहाँ उतना कह पाते हैं 
जितना लिख के कह पाते थे। 

बड़ी ख़ुशी होती है 
जब कोई 
बहुत देर तक घन्टी बजने के बाद 
फ़ोन उठाता है,


                                                  
और जम्हाई ले-ले कर 
देर तक बतियाता है।                                                   
जब दिल बड़ा हो                                                   
तो बिल कम लगने लगता है                                                    
और जब                                                
दूरियाँ बहुत छोटी हों                                                  
तो बैलेंस बड़ा लगने लगता है। 

कभी-कभी हम उतना नहीं समझ पाते 
जितना दिल चुपके से समझ जाता है। 
कभी-कभी हम शब्दों को 
उतना नहीं पढ़ पाते
जितना वे कहना चाहते हैं,
लेकिन हम उन्हें पढ़ के अक़्सर 
वहीं छोड़ आते हैं। 
और जो पढ़ना बाक़ी रह जाता है 
वही अलफ़ाज़
मन में बस जाते हैं।    

"निर्मल अगस्त्य"